अमेरिका बंद करेगा सेंट मुद्रा
2025 अंत तक डॉलर से छोटी मुद्रा सेंट को बंद करेगा अमेरिका: डॉलर कैसे बन गया विश्व की सबसे बड़ी मुद्रा, विस्तार से पढ़ें:-
इसकी प्रस्तावना:-
अमेरिका पिछले कुछ समय से सेंट यानी डॉलर की सबसे छोटी मुद्रा को बंद करने की योजना बना रहा है। हालांकि इसका मुख्य कारण बढ़ती उत्पादन लागत का होना और बदलती वैश्विक आर्थिक नीतियाँ शामिल हैं। एक समय ऐसा भी था जब एक सेंट की भी बड़ी अहमियत थी, लेकिन आज की डिजिटल और महंगाई-प्रभावित अर्थव्यवस्था में इसकी उपयोगिता धीरे धीरे समाप्त होने को है।

अमेरिका द्वारा इस समाचार के साथ एक बड़ा प्रश्न यह भी उठता है कि डॉलर विश्व की सबसे बड़ी और प्रभावशाली मुद्रा कैसे बना? अमेरिका का डॉलर केवल राष्ट्रीय मुद्रा मात्र नहीं है, बल्कि यह वैश्विक व्यापार, निवेश और रिज़र्व के लिए डिफ़ॉल्ट मुद्रा के रूप में बन चुका है।
1. अमेरिका में डॉलर की उत्पत्ति और प्रारंभिक विकास पर एक नजर:-
अमेरिका में डॉलर की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई थी। अपनी आजादी के बाद अमेरिका ने ब्रिटिश पाउंड की जगह अपनी स्वतंत्र मुद्रा की शुरूआत की। वर्ष 1792 में कॉइनएज एक्ट के तहत अमेरिका में डॉलर को आधिकारिक मुद्रा का दर्जा मिला। शुरुआत के दिनों में यह सोने और चांदी पर आधारित हुआ करता था अर्थात गोल्ड स्टैंडर्ड और बाईमेटालिज़्म के तहत ही इस मुद्रा की कीमत तय हुआ करती थी।
समय के साथ धीरे-धीरे अमेरिका का औद्योगिक विकास और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उसकी भागीदारी तेजी से बढ़ने लगी। इससे विश्व में डॉलर का उपयोग भी तेजी से बढ़ा, लेकिन अभी तक वह ब्रिटिश पाउंड की तुलना में काफी कमजोर था।
2. विश्व युद्ध का काल और अमेरिकी डॉलर का उदय:-
i) प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) का काल :-
प्रथम विश्व युद्ध ने यूरोपीय शक्तियों को आर्थिक रूप से काफी कमजोर कर दिया था। अमेरिका ने इन देशों को बड़ी मात्रा में कर्ज दिया और हथियारों की आपूर्ति भी की। इससे भविष्य के लिए अमेरिका का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता गया और दुनिया का डॉलर में विश्वास भी बना।
ii) द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) का काल :-
द्वितीय विश्व युद्ध के समय में डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व की नींव काफी मजबूत हो चुकी थी। यूरोप की अर्थव्यवस्थाएँ तेजी से तहस-नहस होने लगी। ब्रिटिश पाउंड की ताकत धीरे धीरे कमजोर हो रही थी। अमेरिका ही एकमात्र ऐसा देश था जिसकी अर्थव्यवस्था युद्ध के बावजूद भी काफी मजबूत हुई और स्थिर बनी रही थी।
3. 1944 में हुआ ब्रेटन वुड्स समझौता, जिससे वैश्विक शक्ति का आरंभ हुआ:-
वर्ष 1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन अमेरिका के न्यू हैम्पशायर में आयोजित किया गया था, जिसमें 44 देशों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन में तय किया गया कि:
- विश्व के सभी देशों की मुद्राएँ डॉलर के मुकाबले ही तय की जाएंगी।
- डॉलर ही एकमात्र मुद्रा थी जिसे सोने से जोड़ा गया यानि 1 औंस सोने = 35 डॉलर।
- अमेरिका में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष IMF की स्थापना भी इसी सम्मेलन का हिस्सा बनी थी।
इससे भविष्य के लिए डॉलर वैश्विक मुद्रा का केंद्र बन गया था। इसे गोल्ड-डॉलर स्टैंडर्ड नाम दिया गया।
4. अमेरिका में पेट्रोडॉलर प्रणाली के साथ ही डॉलर का नया स्तंभ:-
वर्ष 1971 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने गोल्ड स्टैंडर्ड को समाप्त कर दिया था, जिसे निक्सन शॉक भी कहा जाता है। इसके बाद डॉलर को सोने से कभी नहीं जोड़ा गया, बल्कि उसकी कीमत बाजार मूल्य पर आधारित हो गई।
इसी समय अमेरिका ने सऊदी अरब और ओपेक देशों से भी समझौता किया कि वे अपने तेल का व्यापार केवल डॉलर में कर सकेंगे। इस व्यवस्था को पेट्रोडॉलर प्रणाली नाम दिया गया।
इससे भविष्य में दो महत्वपूर्ण परिणाम निकले:-
- विश्व के प्रत्येक देश को तेल खरीदने के लिए डॉलर की ज़रूरत महसूस होने लगी।
- डॉलर की मांग हमेशा कृत्रिम रूप से बनी रही, चाहे अमेरिका की अर्थव्यवस्था में गिरावट आए या ना आए।
5. वैश्विक संस्थाओं में बढ़ती डॉलर की भूमिका पर एक नजर:-
- वर्तमान की स्थिति देखे तो IMF और विश्व बैंक जैसी बड़ी संस्थाएं भी अधिकतर डॉलर में ही लेन-देन करती हैं।
- वैश्विक ऋण देना और विदेशी मुद्रा भंडार का होना भी डॉलर में होता है।
- दुनिया की लगभग 60% से अधिक विदेशी मुद्रा भंडार वर्तमान में डॉलर में ही होता है।
इसके साथ ही SWIFT जैसे अंतरराष्ट्रीय भुगतान संस्था में डॉलर का उपयोग सबसे अधिक किया जाता है।
इसका निष्कर्ष:-
डॉलर का दुनिया की सबसे बड़ी मुद्रा बनना केवल अमेरिका की आर्थिक ताकत का परिणाम मात्र नहीं है, बल्कि इसके पीछे अमेरिका के दुनिया के लिए रणनीतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और संस्थागत फैसले भी शामिल हैं। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था, पेट्रोडॉलर प्रणाली और अमेरिकी वित्तीय बाजारों की मजबूती ने डॉलर को वैश्विक दर्जा दिलाने में विशेष भूमिका अदा की है जिसे आज तक भी कोई दूसरी विदेशी मुद्रा चुनौती नहीं दे पाई है।
भविष्य में देखें तो चीन या क्रिप्टो जैसी कुछ शक्तियाँ इसकी स्थिति को चुनौती देती दिख रही हैं, लेकिन डॉलर का विश्व मुद्रा के रूप में दबदबा अभी भी बरकरार है। सेंट जैसे छोटे मोटे बदलाव डॉलर के दबदबे को कमजोर नहीं कर सकते।
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