सुप्रीम कोर्ट ने धर्मांतरण रोधी कानून पर 10 राज्यों से मांगा जवाब। क्या है मामला? जाने विस्तार से। Always Right or Wrong.
धर्मांतरण रोधी क़ानूनों पर सुप्रीम कोर्ट ने कई राज्यों से मांगा जवाब
भारत में धर्मांतरण का मुद्दा लंबे समय से संवेदनशील और विवादित विषय रहा है। एक ओर यह धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों से जुड़ा हुआ है, वहीं दूसरी ओर यह समाज में सद्भाव, जनसंख्या संतुलन और राजनीतिक ध्रुवीकरण से भी जुड़ जाता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने Anti-Conversion Laws पर कई राज्यों से जवाब मांगा है। यह कदम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग तरह के कानून बनाए हैं, जिन पर सवाल उठते रहे हैं कि क्या ये भारतीय संविधान की मूल भावना यानी धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत आज़ादी के खिलाफ हैं।
पृष्ठभूमि
भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने, प्रचार करने और किसी अन्य धर्म को अपनाने की भी स्वतंत्रता देता है। संविधान का अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी करता है। लेकिन इसमें यह भी कहा गया है कि यह स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन होगी।
पिछले कुछ दशकों में कई राज्यों ने यह चिंता जताई कि ज़बरदस्ती, लालच, धोखे या बहकावे से धर्म परिवर्तन कराए जा रहे हैं। इसे रोकने के लिए उन्होंने धर्मांतरण रोधी कानून बनाए। उदाहरण के तौर पर—मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्यों ने इस प्रकार के कानून पारित किए गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट का इसमें हस्तक्षेप क्यों?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दाखिल की गईं, जिनमें कहा गया कि धर्मांतरण रोधी कानून नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन कर रहे हैं। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि ये कानून व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता यानि Right to Privacy में हस्तक्षेप करते हैं, क्योंकि कोई व्यक्ति किस धर्म में विश्वास करेगा या नहीं करेगा, यह पूरी तरह उसका निजी मामला है।
याचिकाओं में यह भी कहा गया कि ये कानून कई बार एक विशेष धार्मिक समुदाय को निशाना बनाने और राजनीतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से बनाए जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गंभीरता दिखाते हुए राज्यों से पूछा है कि वे अपने-अपने धर्मांतरण रोधी कानूनों की वैधता और आवश्यकता पर कृपया जवाब दें।
धर्मांतरण रोधी कानूनों की विशेषताएँ
विभिन्न राज्यों में बने कानूनों में कई समानताएँ हैं, जैसे:
- बलपूर्वक धर्मांतरण पर रोक देना – यदि किसी व्यक्ति को हिंसा, दबाव या धमकी देकर धर्म परिवर्तन कराया जाता है तो यह अपराध माना जाएगा।
- प्रलोभन या लालच द्वारा धर्मांतरण करना – यदि किसी को पैसे, नौकरी, शादी या अन्य किसी प्रकार का लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया जाता है तो वह अवैध है।
- सूचना देना अनिवार्य करना – कई राज्यों ने प्रावधान किया है कि धर्म बदलने वाले व्यक्ति को जिला प्रशासन को इसकी सूचना देनी होगी और अनुमति लेनी होगी।
- शादी के नाम पर धर्मांतरण होना – कुछ राज्यों ने इसे “लव जिहाद” से जोड़कर ऐसे विवाहों को रद्द करने या दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा है, जिनमें शादी का उद्देश्य धर्म परिवर्तन बताया जाता है।
- कठोर दंड का प्रावधान – ऐसे मामलों में जुर्माना और कई वर्षों की सजा का भी प्रावधान है।
सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य प्रश्न क्या होगा:-
सुप्रीम कोर्ट जब राज्यों से जवाब मांग रहा है, तो उसके सामने कई संवैधानिक प्रश्न खड़े हैं:
- क्या राज्य द्वारा बनाए गए धर्मांतरण रोधी कानून अनुच्छेद 25 में दिए गए मौलिक अधिकारों को सीमित करते हैं?
- क्या प्रशासन को सूचना देने की शर्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता का हनन है?
- क्या धर्मांतरण पर रोक लगाना या उसे अपराध की श्रेणी में डालना लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है?
- क्या इन कानूनों की आड़ में अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है?
इसका निष्कर्ष:-
धर्मांतरण रोधी कानूनों का मुद्दा भारत जैसे विविधता-पूर्ण देश में अत्यंत संवेदनशील है। एक ओर यह संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का प्रश्न है, वहीं दूसरी ओर यह सामाजिक सुरक्षा और स्थिरता से भी जुड़ा है।
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संभवतः अदालत दोनों पक्षों के बीच एक ऐसा रास्ता निकालेगी, जो न तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कुचले और न ही ज़बरदस्ती या छल से होने वाले धर्मांतरण को बढ़ावा दे। यही भारत के लोकतंत्र और संविधान की सच्ची भावना होगी।
